भारत की पावन भूमि पर अनगिनत संत, महापुरुष और देवताओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने समाज को दिशा दी और मानवता का मार्ग प्रशस्त किया। इन्हीं में एक पूजनीय नाम है बाबा श्रीरामदेव जी का, जिन्हें भक्तगण 'बाबा रामदेव' के नाम से आदरपूर्वक याद करते हैं। राजस्थान के रूणिचा धाम (रामदेवरा) से जुड़े बाबा श्रीरामदेव को द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण का अंश अवतार माना जाता है। उनकी जीवनगाथा, चमत्कारी कथाएँ और जनमानस में उनकी अटूट श्रद्धा आज भी करोड़ों लोगों के हृदय में बसी हुई है।
कौन हैं बाबा श्रीरामदेव?
बाबा श्रीरामदेव जी का जन्म विक्रम संवत 1409 (1352 ई.) में राजस्थान के बाड़मेर जिले के पोखरण क्षेत्र के रुणिचा गांव में हुआ था। उनके पिता राजा अजमल सिंह तनवार एक धार्मिक और पराक्रमी शासक थे। कहा जाता है कि राजा अजमल सिंह को संतान नहीं हो रही थी, तब उन्होंने द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या की। उनकी कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें वचन दिया कि वे स्वयं उनके घर पुत्र रूप में जन्म लेंगे। इसी कारण बाबा श्रीरामदेव को भगवान श्रीकृष्ण का अंश अवतार माना जाता है।
बचपन से दिखाई दिए चमत्कार
बचपन से ही बाबा रामदेव असाधारण शक्तियों से युक्त थे। कहते हैं कि उन्होंने बहुत कम उम्र में ही चमत्कार दिखाने शुरू कर दिए थे। बीमारों को चंगा करना, गरीबों की सहायता करना, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना — ये सब उनके स्वभाव का हिस्सा बन गया था। बाल्यावस्था से ही उन्होंने मानवता की सेवा का संकल्प लिया और जाति, धर्म, वर्ग के भेदभाव से ऊपर उठकर लोगों के कल्याण का कार्य किया।
बाबा रामदेव का संदेश: समानता और भाईचारा
बाबा श्रीरामदेव जी ने जीवनभर मानव समानता का संदेश दिया। उस समय समाज में जातिगत भेदभाव और ऊंच-नीच की भावना गहराई से फैली हुई थी। लेकिन बाबा रामदेव ने हर वर्ग, हर धर्म के लोगों को अपने गले से लगाया। चाहे वह मुस्लिम हो, चाहे दलित या कोई अन्य समुदाय — बाबा के लिए सब एक समान थे। उनकी दरगाह पर आज भी हिन्दू और मुस्लिम दोनों एक साथ श्रद्धा से मत्था टेकते हैं।उनके प्रसिद्ध पाँच पीर मित्र — रामशाह पीर, बालिनाथ पीर, तज्जल पीर, तल्लीन पीर और रसूल पीर — इस बात के प्रमाण हैं कि बाबा रामदेव ने किस तरह सभी धर्मों में समानता और भाईचारे का संदेश फैलाया।
बाबा रामदेव का समाधि स्थल: रामदेवरा
बाबा श्रीरामदेव जी ने अपनी इच्छा से जीवित समाधि ली। उनका समाधि स्थल 'रामदेवरा' (रुणिचा धाम) आज विश्व प्रसिद्ध तीर्थ बन चुका है। हर साल भाद्रपद शुक्ल एकादशी से रामदेवरा मेले का आयोजन होता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु पैदल यात्रा कर बाबा के दर्शन करने आते हैं। भक्तजन यहां बाबा के समाधि स्थल पर मत्था टेकते हैं और अपनी मनोकामनाएं पूर्ण होने की प्रार्थना करते हैं।
द्वारकाधीश से अंश संबंध का प्रमाण
भक्तगण और संत साहित्य के अनुसार बाबा रामदेव जी के चमत्कारों, उपदेशों और उनके जीवन कार्यों में वही दिव्यता देखी जाती है जो द्वारकाधीश श्रीकृष्ण में थी। दोनों ने मानवता, धर्म और सत्य के लिए जीवन जिया। श्रीकृष्ण ने जहां गीता में कर्मयोग का संदेश दिया, वहीं बाबा रामदेव ने भी अपने आचरण से समाज को प्रेम, सेवा और समानता का रास्ता दिखाया।यही कारण है कि आज भी बाबा रामदेव को कृष्णावतार मानते हुए 'अंशावतार' कहा जाता है। रुणिचा धाम में द्वारकाधीश के प्रतीक चिह्न भी पाए जाते हैं, जो इस संबंध को और प्रगाढ़ बनाते हैं।
रामदेव जी की आराधना और भक्ति परंपरा
बाबा श्रीरामदेव की भक्ति पूरे भारत में फैली हुई है, खासकर राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर भारत के कई हिस्सों में। उनके भजनों, लोकगीतों और कथाओं के माध्यम से उनकी महिमा का गायन होता है। 'रामदेव जी की फड़' जैसे पारंपरिक गायन कार्यक्रमों में उनकी कथा को संगीतमय तरीके से सुनाया जाता है। श्रद्धालु "राम सापत" का पाठ करते हैं और "ओम् रामदेवाय नमः" का जाप करके अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं।
निष्कर्ष
बाबा श्रीरामदेव जी न केवल एक संत थे, बल्कि समाज सुधारक, मानवता के उपासक और भेदभाव मिटाने वाले मसीहा भी थे। द्वारकाधीश के अंशावतार के रूप में उनकी मान्यता आज भी उतनी ही सजीव है जितनी सदियों पहले थी। उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं — प्रेम, सेवा, समर्पण और समानता का संदेश आज के समाज के लिए भी प्रेरणास्रोत है।उनकी जीवनी हमें सिखाती है कि सच्चा धर्म वही है जो सबको एक समान देखे और सेवा को सबसे बड़ा कर्म माने। बाबा रामदेव जी का जीवन इसी आदर्श का जीवंत उदाहरण है, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी श्रद्धा के साथ याद किया जाता रहेगा।
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