नई दिल्ली। आज विजयादशमी है। आज ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस का स्थापना दिवस भी है। आरएसएस की स्थापना साल 1925 को दशहरे के दिन ही डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने 5 स्वयंसेवकों के साथ की थी। इस तरह आरएसएस की स्थापना के 100 वर्ष भी पूरे हुए हैं। अपने 100 साल के सफर में आरएसएस ने कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया। आरएसएस के लाखों स्वयंसेवक सेवा के काम में जुटे और देश पर कभी भी संकट आने पर भी हमेशा साथ खड़े रहे। आरएसएस के बारे में तमाम भ्रांतियां फैलाई जाती रही हैं, लेकिन हकीकत इससे उलट है। खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और कांग्रेस के नेता आरएसएस से प्रभावित रहे।
पहले बात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और आरएसएस के संबंधों की। साल 1920 के दिसंबर महीने में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन था। इस अधिवेशन में डॉ. हेडगेवार ने गांधीजी के सामने पूर्ण आजादी की घोषणा, खिलाफत आंदोलन और गोहत्या पर प्रतिबंध का विषय उठाया, लेकिन गांधीजी ने इसे मानने से इनकार कर दिया। डॉ. हेडगेवार चरित्र के पेज 82 में बताया गया है कि 24 फरवरी 1924 को उनकी गांधीजी से पहली मुलाकात हुई। इसके बाद 25 दिसंबर 1934 में भी गांधीजी और डॉ. हेडगेवार मिले। गांधीजी संघ के एक वर्ग शिविर में महादेव देसाई और मीराबेन के साथ आए थे। उस कार्यक्रम में गांधीजी आरएसएस के स्वयंसेवकों में सद्भाव, अनुशासन और छुआछूत को मिटाने का काम देख बहुत प्रभावित हुए थे। गांधीजी ने संघ के ध्वज को प्रणाम भी किया था। तीन सरसंघचालक के पेज नंबर 238 से 241 में लिखा है कि 26 दिसंबर की शाम जमनालाल बजाज के घर डॉ. हेडगेवार और महात्मा गांधी की लंबी बातचीत हुई।
गांधीजी से इस मुलाकात के बाद डॉ. हेडगेवार ने आरएसएस की सभी शाखाओं को निर्देश दिया कि वे सविनय अवज्ञा आंदोलन में व्यक्तिगत तौर पर भाग ले सकते हैं। 100 से ज्यादा स्वयंसेवकों ने इसमें सहयोग भी दिया। 1946-47 में आरएसएस ने सांप्रदायिक दंगों के वक्त गांधीजी की सुरक्षा में भी अहम भूमिका निभाई। उनकी सुरक्षा के लिए स्वयंसेवक तैनात किए। फिर दिसंबर 1946 में आरएसएस प्रमुख रहे माधव सदाविशगोलवलकर ने बिड़ला हाउस में गांधीजी से मुलाकात की थी। 16 दिसंबर 1947 को महात्मा गांधी ने दिल्ली की हरिजन कॉलोनी में आरएसएस के 500 स्वयंसेवकों को संबोधित भी किया। इस संबोधन में गांधीजी ने आरएसएस की बहुत तारीफ की। नाथूराम गोडसे ने जब 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की, तो गुरु गोलवलकर के निर्देश पर शोक जताते हुए 13 दिन तक आरएसएस की सभी शाखाओं को बंद रखा।
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर और आरएसएस के रिश्तों के बारे में भी भ्रांतियां फैलाई जाती हैं। जबकि, एचवी शेषाद्रि और दत्तोपंत ठेंगड़ी की लिखी किताब एकात्मकता के पुजारी- डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर इन भ्रांतियों को गलत ठहराती है। किताब में बताया गया है कि बाबासाहेब सबसे पहले 1935 में आरएसएस के संपर्क में आए और डॉ. हेडगेवार से उनकी मुलाकात हुई। डॉ. अंबेडकर ने महाराष्ट्र में संघ की शाखा भी देखी थी। फिर 1937 में महाराष्ट्र के कराड में डॉ. अंबेडकर ने विजयदशमी पर स्वयंसेवकों को संबोधित भी किया था। 1939 में पूना में आरएसएस के शिक्षा वर्ग में भी डॉ. अंबेडकर गए थे। यहां बाबासाहेब अंबेडकर ने डॉ. हेडगेवार से पूछा था कि मौजूद स्वयंसेवकों में कितने अछूत हैं। इस पर डॉ. हेडगेवार ने उनसे कहा कि खुद ही पूछ लीजिए। बाबासाहेब ने पूछा, तो करीब 100 स्वयंसेवक आगे आए और बताया कि वे दलित हैं। इसके बाद 1949 में दिल्ली में डॉ. अंबेडकर और गुरु गोलवलकर की मुलाकात हुई थी। 1953 में भी बाबासाहेब ने आरएसएस के बारे में जानकारी ली थी। इतना ही नहीं, डॉ. अंबेडकर ने 2 जनवरी 1940 को कराड में आरएसएस की शाखा को भेंट भी दी थी। ये खबर मराठी अखबार केसरी और साप्ताहिक अखबार जनता में छपी थी। तब डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि कुछ मुद्दों पर मतभेद के बाद भी वो आरएसएस की तरफ अपनेपन से देखते हैं।
सभी को पता है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के वक्त आरएसएस ने किस तरह अपनी सेवाएं देश को दीं। वहीं, 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान भी आरएसएस की अहम भूमिका रही। जब पाकिस्तान ने छंब में हमला किया, तो पीएम रहे लाल बहादुर शास्त्री ने सभी दलों की बैठक बुलाई। इसमें उन्होंने आरएसएस के तब प्रमुख रहे गुरु गोलवलकर को भी बुलाया। अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक 6 सितंबर 1965 को बैठक हुई। गुरु गोलवलकर ने 8 मार्च 1970 को आरएसएस स्वयंसवेकों को संबोधित करते हुए इस बैठक के बारे में बताया था। उन्होंने बताया कि जब बैठक में एक राजनीतिक दल के प्रमुख लगातार योर आर्मी कह रहे थे, तब गुरु गोलवकर ने टोकते हुए ‘अवर आर्मी’ करने के लिए कहा। गुरु गोलवलकर ने बैठक में कहा कि हमें जंग जीतनी चाहिए। दलबंदी न हो। सभी लोग परिश्रम करने के लिए तैयार रहें। गुरु गोलवलकर के मुताबिक उस बैठक में मौजूद लोग ऐसा व्यवहार कर रहे थे जैसे वे अलग-अलग देश के प्रतिनिधि थे। शास्त्रीजी के निधन के बाद गुरु गोलवलकर ने पीएम आवास जाकर उनको श्रद्धांजलि दी। साथ ही उनकी शवयात्रा में भी शामिल हुए थे।
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