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लेख: कश्मीर के बदले हालात से बैचेन पाक, ले रहा आतंकवाद का सहारा

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हर्ष वी पंत, नई दिल्ली: कश्मीर के सन्नाटे को बेकसूर सैलानियों की चीखों ने तोड़ा है। घाटी में किए जा रहे दावों के पीछे छिपी है एक ऐसी कुटिल सोच जो समय-समय पर अपना खौफनाक चेहरा दिखाती रही है। वहां चुनाव शांति से संपन्न हुए, राज्य और केंद्र की सरकारें पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा तालमेल से काम करती दिखाई देने लगीं, स्थानीय आबादी को शांतिपूर्ण माहौल का फायदा इतने स्पष्ट रूप में मिलने लगा, जिसकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कश्मीर का संतुलन : सबसे बड़ी बात यह कि कश्मीर और भारत के दूसरे हिस्सों के बीच एक तरह का संतुलन उभरता दिखाई देने लगा। समय-समय पर की जाने वाली यह घोषणा कि ‘कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है’, एक व्यावहारिक सचाई में तब्दील होती जा रही थी क्योंकि बाकी पूरा देश कश्मीर को, उसकी समस्त खूबसूरती को अपने में समाहित करता दिख रहा था। हाशिए पर आतंकी : यह नई वास्तविकता ही थी, जिससे उन लोगों के सीने पर सांप लोटने लगा जो पिछले सात दशकों से कश्मीर में हिंसा और अस्थिरता भड़काने वाली पॉलिटिकल इकॉनमी पर फल-फूल रहे थे। पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन और उनके ऑपरेटर भारत और पूरी दुनिया के राजनीतिक और सैन्य विमर्श में खुद को हाशिये पर सिमटता महसूस कर रहे थे। कश्मीर पर हार : अनुच्छेद 370 के उन्मूलन ने इस इलाके का नक्शा ही बदल दिया। भारत ने सबके सामने यह स्पष्ट कर दिया कि वास्तव में कोई कश्मीर समस्या है ही नहीं। समस्या जो रह गई है और जिस पर बात होनी चाहिए, वह पाकिस्तान द्वारा अधिकृत इलाका। कश्मीर पर पाकिस्तान की ओर से की जा रही बेकार की बातों पर ध्यान देने का वक्त अब दुनिया के पास नहीं रह गया था। रावलपिंडी जितना ही कश्मीर के मुद्दे पर जोर देता, उतना ही उसकी घरेलू चुनौतियां उजागर होतीं। आर्मी चीफ की बौखलाहट : ऐसे में आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तान के आर्मी चीफ असीम मुनीर अपनी बौखलाहट दिखाते हुए देशवासियों को यह याद दिलाने को मजबूर हुए कि कश्मीर पाकिस्तान के ‘गले की नस’ है। पाकिस्तान बनाने के लिए दी गई कुर्बानियों की अहमियत याद दिलाना भी उन्हें जरूरी लगा। उन्होंने हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान कहा, ‘हमारे पुरखों ने बड़ी कुर्बानियां दी हैं, हमने भी इस देश के निर्माण में कुर्बानियां दी हैं और हम जानते हैं कि इसकी रक्षा कैसे करनी है।’ लेकिन वह यहीं नहीं रुके। द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत : मुनीर के अंदर छिपा इस्लामिस्ट तब पूरी तरह बेनकाब हो गया, जब उन्होंने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के तर्क को दोहराते हुए कहा, ‘हमारे पुरखे समझते थे, हम हिंदुओं से हर मायने में अलग हैं। हमारे धर्म अलग हैं, रीति-रिवाज अलग हैं, परंपराएं अलग हैं, सोच अलग है और हमारी महत्वाकांक्षाएं भी अलग हैं। द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का यही आधार था। हम दो देश हैं। हम एक राष्ट्र नहीं हैं।’ हमले की टाइमिंग : कश्मीर में जिस तरह से सैलानियों को मारा गया, उससे लगता है कि आतंक के इको सिस्टम ने पाकिस्तानी आर्मी चीफ के संकेतों को समझते हुए काम कर रहा था और चाहता था कि एक बार फिर इस संघर्ष की ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचा जाए। कोई आश्चर्य नहीं कि हमला तब किया गया जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस भारत में थे। पाकिस्तान में अमेरिका की दिलचस्पी पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। उसके पास दूसरे बड़े मसले हैं ध्यान देने को। उसकी ज्यादा बड़ी चिंता अपनी इकॉनमी को दुरुस्त करने और चीन की ओर से मिल रही चुनौतियों से निपटने की है। बदतर होती छवि : पिछले एक दशक के दौरान मोदी सरकार की एक बड़ी कामयाबी यह रही है कि उसने भारतीय विदेश नीति के संदर्भ में पाकिस्तान को पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया है। इकॉनमी के वजन और कूटनीति के कौशल की बदौलत जहां वैश्विक मंचों पर भारत का कद बढ़ता गया, वहीं पाकिस्तान की छवि ऐसी हो गई कि उसके सबसे भरोसेमंद मित्र चीन को भी उसके साथ काम करना नामुमकिन लगने लगा। इकॉनमी के मोर्चे पर बढ़तीं मुश्किलों और बलूचिस्तान में बढ़ते असंतोष ने पाकिस्तान सेना की छवि को और खराब कर दिया। देश की सुरक्षा की गारंटी देने वाला यह संगठन कुछ कर नहीं पा रहा। ऐसे में हिंदू-मुस्लिम विवाद की शरण लेना उसके लिए स्वाभाविक था। सही विकल्प का चयन : अब नई दिल्ली की बारी है। उसे पाकिस्तान को कड़ा संदेश देना है। उसके पास कई विकल्प हैं। हर विकल्प के अपने फायदे हैं तो साथ में कुछ जोखिम भी जुड़े हैं। हाल के अनुभव ने दुनिया को बताया है कि जंग शुरू करना आसान है, लेकिन उसे अंजाम तक पहुंचाना मुश्किल होता है। पाकिस्तान मान कर चल रहा है कि भारत का जवाब उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप ही होगा। भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसा न हो। (लेखक इंग्लैंड के किंग्स कॉलेज में प्रफेसर हैं)
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