कर्नाटक में सीएम सिद्धारमैया और डिप्टी सीएम व कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच का विवाद अभी भी जारी है, जो पार्टी के लिए सही नहीं है। इन दोनों नेताओं के बीच कलह की बात वक्त-वक्त पर सामने आती रही है और शीर्ष नेतृत्व अभी तक इसे सुलझाने में नाकाम रहा है। वर्चस्व की लड़ाई: सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार का टकराव वर्चस्व की लड़ाई है। दोनों नेता राज्य संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। ऐसा ही कुछ राजस्थान में भी देखने को मिला था, जहां आखिरकार पार्टी को सत्ता गंवानी पड़ी। बिल्कुल वही सब अब कर्नाटक में हो रहा है। यह बिल्कुल अप्रत्याशित स्थिति है, जहां सीएम और उनके मंत्री चाहते हैं कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अपने पद से इस्तीफा दे दें। जब इस तरह साफ-साफ दो गुट बन गए जाएं, तो न संगठन ठीक से चल सकता है और न सरकार। गुटबाजी का रोग: कांग्रेस की इस समय केवल तीन राज्यों में सरकार है - कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश। झारखंड और जम्मू-कश्मीर में वह सरकार का हिस्सा जरूर है, लेकिन जूनियर पार्टनर के रूप में। जहां पार्टी की अपनी सरकार है, वहां भी सब ठीक नहीं लग रहा। कर्नाटक की कहानी तो चल ही रही है, तेलंगाना और हिमाचल से भी गुटबाजी की खबरें आती रही हैं। हिमाचल में राज्यसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के नौ विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर दी थी और पार्टी के उम्मीदवार को हार मिली थी। केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी: लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने 99 सीटें जीतीं, तो लगा कि पार्टी वापसी की राह पर है। लेकिन, एक के बाद एक विधानसभा चुनावों में हार ने उसे फिर बेपटरी कर दिया। उसने लोकसभा चुनाव से जो भी बढ़त कमाई थी, वह हरियाणा और महाराष्ट्र में मिली हार में खर्च हो गई। और इसके पीछे वजह रही गुटबाजी। दोनों राज्यों में स्पष्ट तौर पर पूरा संगठन बंटा नजर आ रहा था, पर केंद्रीय नेतृत्व सही वक्त पर कठोर फैसले लेने में नाकाम रहा। स्थिति कमजोर पड़ी: कांग्रेस के अंदर कलह का असर विपक्ष के बाकी दलों के साथ उसके रिश्तों और I.N.D.I.A. ब्लॉक में उसकी स्थिति पर भी पड़ रहा है। यूपी उपचुनाव और दिल्ली विधानसभा इलेक्शन, कहीं भी साथी दलों ने कांग्रेस को भाव नहीं दिया। यही हालात बिहार में भी दिख रहे हैं, जहां इसी साल चुनाव होना है। जब तक वह आपस की लड़ाई से बाहर नहीं निकलती, पार्टी का मजबूत स्थिति में आना मुश्किल है।
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