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भारत की आर्थिक छलांग क्या आम लोगों की ज़िंदगी में भी बड़ा बदलाव ला पाई है?

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Getty Images नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने दावा किया था कि भारत दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था बन चुका है (सांकेतिक तस्वीर)

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, भारत जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करने की ओर है. इस ख़बर के बाद देशभर में इसकी चर्चा तेज़ हो गई है.

एक ओर कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की नीतियों- जैसे 'डिजिटल इंडिया', 'मेक इन इंडिया' और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर विशेष ज़ोर का परिणाम मानते हैं. उनका कहना है कि इन पहलों ने भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाई है और साथ ही किसानों, मज़दूरों और मध्यम वर्ग के लिए उम्मीदें जगाई हैं.

वहीं दूसरी ओर, कुछ आलोचक इस विकास को सतही मानते हैं. उनका तर्क है कि जब तक हर नागरिक को रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलतीं, तब तक भारत विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकता.

इन आंकड़ों पर कई सवाल उठते हैं, जैसे- भारत के इस मुक़ाम तक पहुंचने में मोदी सरकार की किन नीतियों की मुख्य भूमिका रही?

सवाल ये भी है कि अर्थव्यवस्था के तेज़ी से बढ़ने के बावजूद बेरोज़गारी दर अब भी ऊँची क्यों है? इस विकास का असली लाभ किन तबकों को मिल रहा है? डिजिटल क्रांति ने इस बदलाव में कैसी भूमिका निभाई?

अगर सब कुछ इतना बेहतर है, तो फिर अमीर-ग़रीब के बीच की खाई क्यों बढ़ रही है? और सबसे अहम सवाल- इस आर्थिक प्रगति का आम नागरिक की ज़िंदगी पर असल असर क्या पड़ा है?

बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सब सवालों पर चर्चा की.

इन सवालों पर चर्चा के लिए ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने और आईआईटी दिल्ली में प्रोफ़ेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा शामिल हुए.

आम लोगों की ज़िंदगी कितनी बदली? image Getty Images भारत के चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के दावे को लेकर कई विशेषज्ञों ने इस पर सवाल उठाए हैं

पिछले शनिवार को नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने एक बयान जारी कर भारत के जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया.

इस घोषणा के बाद जहां कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसकी सराहना की, वहीं कई विशेषज्ञों ने इस दावे पर सवाल भी उठाए. हर बार जब इस तरह के आंकड़े सामने आते हैं, तो आम लोगों के मन में यह सवाल ज़रूर उठता है कि क्या इस आर्थिक तरक़्क़ी का असर उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर भी पड़ा है.

इस सवाल पर आईआईटी दिल्ली की प्रोफ़ेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा, "अगर एक परिवार में एक व्यक्ति पांच लाख रुपये कमा रहा है और दूसरे परिवार में चार लोग मिलकर पांच लाख कमा रहे हैं, तो सिर्फ़ आमदनी देखकर यह कहना कि दोनों बराबर हैं, ग़लत होगा. क्योंकि एक परिवार में उस राशि से एक व्यक्ति का ख़र्च चल रहा है, जबकि दूसरे में चार लोगों का."

"इसी तरह, देशों की तुलना करते समय भी केवल जीडीपी के आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है. जापान और जर्मनी जैसे देशों की जीडीपी की तुलना भारत से करना उचित नहीं है, क्योंकि भारत की जनसंख्या कहीं ज़्यादा है."

उन्होंने बताया कि यह ज़रूर है कि अगर देश में आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं तो उम्मीद की जाती है कि इसका फ़ायदा सभी वर्गों तक पहुंचेगा. लेकिन इसके दो अहम पहलू हैं, जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए.

उन्होंने पहलुओं को समझाते हुए कहा, "पहला सवाल यह है कि आर्थिक गतिविधि किस सेक्टर में हो रही है? अगर निर्माण क्षेत्र (कंस्ट्रक्शन) में विकास हो रहा है, तो निर्माण मज़दूरों तक इसका सीधा लाभ पहुंच सकता है. लेकिन अगर यह वृद्धि फाइनेंशियल सेक्टर में हो रही है, तो इसका लाभ सीमित लोगों तक ही रहेगा- और वो पहले से ही ठीक वर्ग के लोग हैं."

प्रोफ़ेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा कि यह समझना ज़रूरी है कि देश किन क्षेत्रों में निवेश और विकास पर ज़ोर दे रहा है. कौन-से सेक्टर तेज़ी से बढ़ रहे हैं और उनका बाकी अर्थव्यवस्था के साथ कितना गहरा जुड़ाव है.

रीतिका खेड़ा ने कहा, "जब हम जीडीपी ग्रोथ रेट की बात करते हैं, तो हमें यह सेक्टर-वाइज़ देखना चाहिए- जैसे कृषि में कितनी वृद्धि हुई, मैन्युफैक्चरिंग में कितना विकास हुआ. इससे यह साफ़ होता है कि क्या यह आर्थिक प्रगति सभी तक समान रूप से पहुंच रही है या केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गई है."

लेकिन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं.

गौतम चिकरमाने ने कहा, "मुझे समझ नहीं आता कि ये आलोचना आ कहां से रही है. ऐसा कौन-सा कॉन्स्टिट्यूएंसी है जिसे आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिला? मुझे एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं दिख रहा जिसका इससे कोई फ़ायदा न हुआ हो- चाहे वो कृषि हो, मैन्युफैक्चरिंग, एंटरप्रेन्योरशिप या न्यूनतम वेतन. हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में फ़ायदा हुआ है."

उन्होंने कहा, "हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं, और लोकतंत्र में तो ये आवाज़ें उठना स्वाभाविक भी है."

आलोचना पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा, "मुझे ये भी समझ नहीं आता कि लोग किस डेटा के आधार पर कह रहे हैं कि असमानता बढ़ गई है, अमीर और अमीर हो गए हैं, और ग़रीब वहीं के वहीं हैं."

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सरकारी आंकड़ों पर सवाल क्यों? image Getty Images नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने आईएमएफ़ के आंकड़े का हवाला देते हुए चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था की बात कही है

चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के इन दावों के बीच कुछ लोगों का कहना है कि भारत एक विशाल आबादी के साथ आर्थिक रूप से सही दिशा में प्रगति कर रहा है जबकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने जीडीपी के बारे में दावा करने में जल्दबाज़ी करने की ओर इशारा किया है.

सरकार जब भी कोई आर्थिक आंकड़ा जारी करती है, तो उस पर अक्सर सवाल उठते हैं. लेकिन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि इतने बड़े स्तर पर आंकड़े केवल सरकार ही जुटा सकती है, और उन्हीं पर भरोसा किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, "दुनिया भर में एक ही डेटा प्वाइंट होता है, और वो डेटा सरकारें ही इकट्ठा करती हैं. किसी और के पास इतनी क्षमता नहीं है. अगर आप कहें कि सरकार ग़लत है, वर्ल्ड बैंक ग़लत है, आईएमएफ़ ग़लत है, एडीबी (एशियन डेवलपमेंट बैंक) ग़लत है, यूनाइटेड नेशंस भी ग़लत है- तो फिर सही कौन है? ये मुझे बता दीजिए, मैं उन आंकड़ों से बहस करने को तैयार हूं."

इस मुद्दे पर रीतिका खेड़ा ने कहा कि सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाना कोई नई या ग़लत बात नहीं है.

उन्होंने समझाया, "मान लीजिए किसी देश में केवल दो लोग हैं- एक की आय एक लाख है और दूसरे की चार लाख. ऐसे में कुल जीडीपी पांच लाख हो गई और औसतन प्रति व्यक्ति आय 2.5 लाख हो गई. लेकिन इससे असल आर्थिक स्थिति नहीं समझी जा सकती. अगर सरकार अमीर व्यक्ति से दो लाख लेकर ग़रीब को दे दे, तो कुल जीडीपी तो वही रहेगी, लेकिन ग़रीब की हालत बेहतर हो जाएगी."

उन्होंने कहा कि यही वजह है कि 'हमें आय के वितरण पर ध्यान देना चाहिए. अगर अमीरों से लेकर ग़रीबों को दिया जाए, तो असमानता के मुद्दे काफ़ी हद तक सुलझ सकते हैं.'

सरकारी आंकड़ों को लेकर उन्होंने कहा, "जीडीपी के आंकड़े कैसे कैलकुलेट होते हैं, उस पर लंबे समय से विवाद होते आए हैं. मेरे हिसाब से हमें सरकारी आंकड़े ज़रूर देखने चाहिए, लेकिन उन पर सवाल उठाना भी ज़रूरी है और यह बिल्कुल जायज़ है."

उन्होंने कहा, "जहां तक भारत के जीडीपी रैंक की बात है, मुझे फ़िलहाल उस आंकड़े पर कोई ख़ास शक नहीं है, लेकिन मैं मानती हूं कि यह सही पैमाना नहीं है. अगर हमें किसी चीज़ से तुलना करनी है, तो वह प्रति व्यक्ति आय होनी चाहिए, न कि कुल जीडीपी."

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बेरोज़गारी और सरकारी नौकरी image Getty Images भारत के लगभग हर चुनाव में बेरोज़गारी एक ख़ास मुद्दा होता है

भारत में बेरोज़गारी एक गंभीर और जटिल समस्या है, जो ख़ासतौर पर युवाओं, महिलाओं और शिक्षित वर्ग को प्रभावित करती है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कई लोग सरकारी नौकरी की प्रतीक्षा में समय गंवा देते हैं, जबकि अन्य का कहना है कि देश में पर्याप्त रोज़गार के अवसर नहीं हैं, जिससे लोग बेरोज़गार रह जाते हैं.

देश में जब भी चुनाव होते हैं, विपक्षी पार्टियां बेरोज़गारी के मुद्दे को हथियार बनाकर सरकार पर निशाना साधती हैं.

इस पर अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा, "बहुत सारे लोग पूरी तरह से बेकार नहीं बैठ सकते, इसलिए बेरोज़गारी की दर हमेशा बहुत ज़्यादा नहीं दिखती. जिन्हें अच्छी नौकरी नहीं मिलती, वे कुछ न कुछ काम करने लगते हैं- जैसे साइकल मरम्मत की दुकान खोल लेना. इस तरह लोग किसी तरह अपना गुज़ारा करने की कोशिश करते हैं."

गिग इकॉनमी पर बात करते हुए उन्होंने कहा, "गिग वर्क में आमदनी ज़्यादा नहीं होती. कभी-कभार सुनने में आता है कि किसी ने बहुत पैसा कमा लिया, लेकिन वो अपवाद होता है. अगर औसत देखें तो कमाई बहुत सीमित है."

सरकारी नौकरी को लेकर उन्होंने कहा, "ऐसा नहीं है कि हर सरकारी नौकरी में तनख्वाह बहुत ज़्यादा होती है, लेकिन उसमें जॉब सिक्योरिटी और दूसरी सुविधाएं होती हैं, जो लोगों को आकर्षित करती हैं."

साथ ही उनका मानना है कि अगर प्राइवेट सेक्टर में भी धीरे-धीरे वही फ़ायदे मिलने लगें- जैसे सुरक्षा, स्थायित्व, और सम्मान- तो लोग उस तरफ़ भी बढ़ने लगेंगे.

रीतिका खेड़ा ने कहा, "एक बहुत बड़े तबके के लिए मज़दूरी की दरें या तनख्वाएं बहुत कम हैं और वहां नौकरी की सुरक्षा भी नहीं होती. कभी भी निकाल दिया जाता है. इस वजह से भी लोग उस सेक्टर से कतराते हैं."

उन्होंने कहा, "हमारे देश का एक बहुत बड़ा तबका है जो रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है. अलवर में एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि 'मिडिल क्लास वो है जो अगर आज रोज़गार मिल गया तो शाम को रोटी के साथ सब्ज़ी खा पाएगा और अगर नहीं मिला तो सिर्फ़ सूखी रोटी खाएगा'."

बेरोज़गारी को लेकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने अलग विचार रखते हैं. उनका मानना है कि देश में बेरोज़गारी उतनी ज़्यादा नहीं है.

उन्होंने कहा कि समस्या ये है कि ज़्यादातर युवाओं के लिए नौकरी का मतलब सिर्फ़ सरकारी नौकरी है. अगर नज़रिया यही रहेगा, तो फिर नौकरियाँ सीमित होंगी और उतनी होनी भी नहीं चाहिए.

उन्होंने आगे कहा, "अगर कोई युवक 20-25 साल की उम्र से लेकर 30-35 साल की उम्र तक सिर्फ़ सरकारी नौकरी की तैयारी करता रहे और फिर कहे कि वो बेरोज़गार है, तो इसमें न आप कुछ कर सकते हैं, न मैं और न ही सरकार."

कैसे बेहतर हो सकते हैं हालात? image Getty Images सांकेतिक तस्वीर

इस सवाल पर गौतम चिकरमाने का मानना है कि हर समस्या का समाधान आर्थिक विकास में ही है.

उन्होंने कहा, "अगर मैन्युफैक्चरिंग बढ़ेगी तो मज़दूरों को रोज़गार मिलेगा. सबसे अहम बात यह है कि कृषि से मैन्युफैक्चरिंग और फिर मैन्युफैक्चरिंग से सर्विस सेक्टर तक जो बदलाव होना है, वो भी इसी ग्रोथ से संभव होगा."

एक अनुभव शेयर करते हुए उन्होंने कहा, "मैं उत्तराखंड में किसानों के साथ काम करने गया था. वहां देखा कि किसानों को खेत के लिए मज़दूर नहीं मिल रहे थे, क्योंकि ज़्यादातर लोग नरेगा में सड़क निर्माण में लगे हुए हैं."

उन्होंने कहा, "हमारा कृषि क्षेत्र बेहद अनुत्पादक (कम उत्पादक) है. हमें इसकी उत्पादकता दस गुना बढ़ानी होगी, जो केवल श्रमिकों के ज़रिए नहीं बल्कि मैकेनाइजेशन (मशीनीकरण) से संभव है."

उन्होंने कहा, "इसके लिए ज़रूरी है कि हम ऐसे रिफॉर्म लाएं जिससे प्राइवेट सेक्टर मैन्युफैक्चरिंग में निवेश के लिए प्रेरित हो."

चिकरमाने ने कहा, "मुझे लगता है कि मौजूदा ग्रोथ की रफ़्तार बनी रहनी चाहिए."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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